सिर्फ बच्चों का टीकाकरण कर देने या वैक्सीन की दवा पिला देने से बाल कल्याण नहीं होने वाला  डा. राष्ट्रबंध्ु 

बरेली। बाल साहित्य अब समाचारपत्रों से नदारद होता जा रहा है। उनकी जगह अब सूचनात्मक आलेखों ने ली है। टीवी चैनल्स अब बच्चों को फूहड़ तरीके से हंसाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके कार्यक्रमों में नैतिकता, देशभक्ति, संवेदनशीलता और सामाजिक सांस्कृतिक पहलू नदारद हैं। सरकार मिड-डे मील पर तो, अरबों रुपये खर्च कर रही है, मगर बाल साहित्य को बढ़ावा देने के लिए उसके पास कोई योजनाएं नहीं हैं। यह कहना है भीलवाड़ा, राजस
्थान से प्रकाशित पत्रिका ‘बाल वाटिका’ के संपादक डा. भैरूंलाल गर्ग का। वे मुख्य अतिथि के रूप में तितली सोसाइटी पफॉर चिल्ड्रेन वेलपफेयर द्वारा आयोजित संगोष्ठी ‘बाल साहित्य पर मीडिया का प्रभाव’ पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे।
डा. भैरूंलाल गर्ग को इस मौके पर ‘मो. वली खां स्मृति संपादक शिरोमणी तितली सम्मानः 2012’ एवं प्रमुख बाल साहित्य आलोचक डा. सुरेन्द्र विक्रम को ‘रियासत अली खान स्मृति बाल साहित्य सृजन तितली सम्मानः 2012’ से सम्मान पत्रा एवं स्मृति चिन्ह के साथ शाल उड़ाकर सम्मानित किया गया। इस मौके पर मासिक बाल समाचारपत्रा ‘जूनियर नाइट’ का विमोचन भी किया गया।
कार्यक्रम स्वागताध्यक्ष विकास अग्रवाल ने स्वागत भाषण पढ़ा और सभी अतिथियों एवं आगुन्तकों का अभिवादन किया।
रोटरी भवन में आयोजित इस कार्यक्रम में देश भर से बाल साहित्यकार जुटे और बाल साहित्य के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देने पर बल दिया। कानपुर से आये ‘बाल साहित्य समीक्षा’ के संपादक एवं वरिष्ठ साहित्कार डा. राष्ट्रबंध्ु ने कहा कि सिर्फ बच्चों का टीकाकरण कर देने या वैक्सीन की दवा पिला देने से बाल कल्याण नहीं होने वाला। बच्चों में ईमानदारी, मानवता और सदभावना और उनके नैतिक चरित्रा का विकास करना भी हमारी जिम्मेदारी है। तब तक देश को जीवन मूल्यों से जु़ड़े जिम्मेदार नागरिक नहीं मिलेंगे, हमारा कल्याण नहीं हो सकता है और इसमें मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे लखनऊ के वरिष्ठ बाल साहित्य आलोचक डा. सुरेन्द्र विक्रम ने कहा कि बच्चे बाल साहित्य से विमुख होते जा रहे हैं। उनमें किताबें पढ़ने की आदत कम होती जा रही है। इसमें बच्चों के मां-बाप बराबर के दोषी हैं। वे बच्चों के मंहगे गिफ्रट आइटम तो खरीदकर देते हैं, मगर बाल पत्रिकाएं और पुस्तकें भेंट नहीं करते। साहित्यकारों की भी जिम्मेदारी है कि वे बड़े ही सहज और रोचक ढंग से लिखें। उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण बड़े ही परिपक्व होने चाहिए।
बाल साहित्यकार निर्मला सिंह ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि विदेशांे में ट्रेन या बस के सफर के दौरान बच्चों के हाथों में किताबें दिखाई देती हैं और यहां के बच्चे मोबाइल पर गेम खेल रहे होते हैं।
शाहजहांपुर के बाल साहित्य समीक्षक एवं युवा साहित्यकार डा. नागेश पांडेय ‘संजय’ ने कहा कि मीडिया की अतिआध्ुनिकता के कारण बाल साहित्य अपने मूल उद्देश्य से विमुख हो रहा है। परिणामस्वरूप बच्चे जीवन मूल्यों से कट रहे हैं और वे भौतिकतावादी आंध्ी का शिकार हो रहे हैं।
संस्था की अध्यक्ष डा. मोनिका अग्रवाल ने कहा कि बच्चों का मन कोमल होता है। माताओं को चाहिए कि वे बचपन से ही बच्चों को लोरियों और बाल गीतों के माध्यम से संस्कारवान बनायें। मगर आज की माताओं को पहले जैसे शिशु गीत और लोरियां भी कहां याद हैं।
चर्चित लेखिका डा. करुणा पांडेय ने कहा कि एकल परिवारों के चलन ने बच्चों को अकेला कर दिया। दादी-नानी की कहानियां भी अब बच्चों को कौन सुनाता है। बच्चे टीवी देखकर वक्त गुजारते हैं।
संस्था के सचिव फहीम करार ने कहा कि दरअसल बच्चों को सही दिशा नहीं मिल पा रही है। मां-बाप के पास बच्चों के लिए समय ही नहीं है। इलेक्ट्रानिक्स गैजेट्स ही अब उनके दोस्त हैं। अब मशीन से दोस्ती करके बच्चा मशीन ही बनेगा। घर के बड़े-बूढ़ों को बच्चों के साथ अनुभव बांटना चाहिए, ताकि बच्चा सामाजिक बन सके।
कार्यक्रम के आखिर में बाल कविता पाठ का आयोजन भी हुआ। कृष्णा खंडेलवाल, रमेश गौतम, इंद्रदेव त्रिवेदी, कमल सक्सेना, शिखा चंद्रा आदि ने बाल काव्य पाठ किया।
संचालन वरिष्ठ साहित्यकार इंद्रदेव त्रिवेदी ने किया। कार्यक्रम में प्रो. राम प्रकाश गोयल, डा. ममता गोयल, मुबीना खान, रोहित अग्रवाल ‘हैंग’, डा. कामरान खान, रमेश गौतम, पूनम सेवक, रबीअ बहार, मिस्रेयार, मुबीन कैफ, गुल मदार आदि का विशेष सहयोग रहा।

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